सूखे हुए उजाले अब अँधेरे हो गए
दीवारों पर रेंगती हुई ज़िंदगी की खातिर
कुछ पल है जो चमकती रेत में खो गए
आसरा भी उम्मीद का अब नहीं रहा
अधूरे पलो में कुछ अनकही दास्तान है
नजरो में छलकती बूंदों की खातिर
बेचराग होती सड़को पर ये कौन सी बतियाँ है
कि इनकी मद्धिम रौशनी भी नाकाम है
मगर फिर भी जल रही है खुद को जलाकर
बिखरे हुए मुसाफिरों की ज़िंदगी की खातिर
बेबस दिनों में खाली हाथ है भरोसा
इस नए माहौल को नहीं समझ पाया
जरुरत है थोड़े से सब्र की मुझे भी
नीम के घूंट पीता हूँ सच्चाई की खातिर
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