प्रत्येक व्यक्ति जब वो अपने बचपन को जी रहा होता है उस के लिए उमंग-उत्साह का त्यौहार है दुर्गापूजा।
प्रातः काल स्नान करके दुर्गापूजा और आरती में सम्मिलित होना…. नए कपड़े पहनने का उत्साह….. मिठाई की मिठास, दोस्तों का हुजूम….. मेले के रंग बिरंगे पंडाल…..एक साथ कई लाऊडस्पीकर में अलग-अलग गानों का घाउंज-माऊंज…..कई अस्पष्ट गानों की स्वरलहरी से गूंजता हुआ माहौल….. छोटे-छोटे देहाती दुकानों की लम्बी कतार….. इन कतारों में खिलौने की दूकान को ढूंढती हुयी नन्ही नजरें….. खिलौनों की खरीदारी …..मेले में रात-रात भर घुमाई….थकावट के कारण थके हुए नन्हे पैर…. हाथ भांजते हुए घर को वापसी….. खरीदी हुयी सीटियों को बजाकर मचाया हुआ शोर….. ढलती हुयी सांझ……घर के द्वार पर खड़ी होकर बेचैनी से इन्तजार करती हुई माँ…. पढाई से कुछ दिनों के लिए अवकाश ……दुर्गा पूजा में आयोजित नृत्य कार्यक्रम और सांस्कृतिक झलकियों को रात भर जाग कर देखना…..यदि अपने गांव में नृत्य का कार्यक्रम न हो तो दूसरे गांव जैसे धनौजी, शिकारगंज, हरनाथा, पताही जाकर नृत्य और सांस्कृतिक कार्यक्रम देखना…..घर से मिले पैसे से दोस्तों के साथ मुरही, कचरी, जलेबी का पार्टी करना…..और क्या चाहिए था जीवन में।
उस समय दशहरा के मेला देखने के लिए प्रतिदिन 20 रूपये मिल जाते थे। नवरात्र के सप्तमी से लेकर दशमी तक प्रतिदिन 20 रूपये का मिलना जैसे पूरे साल भर में एक बच्चा अपने जन्मदिन के लिए उपहार की प्रतीक्षा करता है उसी तरह से था। उस समय त्यौहार होने का अपना एक अर्थ , उमंग और उत्साह था। उस जमाने में 1 रुपए में जलेबी, 2 रुपए में समोसा और 2 रुपए में 100 ग्राम मुरही मिल जाता था और यह हमारे लिए एक खजाने से कम नहीं था।
दुर्गापूजा के समय मेले के दुकानदार लोग पहले से ही सड़क के दोनो तरफ से दुकान लगाने के लिए निशान बनाने लगते थे… दुकानों की लाइनें इतनी लंबी होती थी कि सिरौना दुर्गामंदिर से जो दुकान लगनी शुरू होती थी वो छठ घाट के नजदीक जाकर समाप्त होती थी। मेले में लोगो की भी भीड़ बहुत होती थी…. सिरौना के साथ साथ मसन्हा, हरनैरैना, कठमालिया, बटौआ, कोहबरवा आदि गांवों के लोग भी मेले में सम्मिलित होते थे।
आज तो जेब में अगर 20 हजार भी हो तो वो उत्साह और उमंग नहीं, बहुत कुछ बचा रह जाता है मौज करने के लिए, मौज कम नहीं होती, पैसा कम पड़ जाता है। और आज पैसा है लेकिन समय नहीं है, अगर समय निकाल भी लिया तो वो उत्साह नहीं है…. सच है, बचपन की बात ही कुछ और होती है… ये तो वो उम्र है जो ना कुछ होते हुए भी बहुत कुछ पा लेने की हिम्मत रखता है।
सचमुच वो गुज़रा जमाना हमारे जीवन का स्वर्णिम दौर था। अब तो बस उनको याद करके अपने आपको सांत्वना ही दे सकते हैं।
दोस्तों, इस लेख से शायद आपको अपने गाँव के बचपन के दिनों के दुर्गापूजा की याद आ जाए…बस यही मकसद है की वो याद आपको गुदगुदा जाए।