पेट की तड़प मिटाने को मैं घर से निकल आया
लेकिन इस शहर का पानी मुझे रास नहीं आया
मैं कस्बों की ज़िन्दगी के तो करीब हो गया
मगर गाँव के आंगन के पास नहीं आया
अंधाधुंध पैसे की खनक बहुत देखी मैंने
पर अपनी मिटटी का प्यार नहीं पाया
कितनी झंझट, कितना शोर और कितने सवाल
मैं इस जंजाल को कभी काट नहीं पाया
तुम्हे लगता होगा कि मैं बड़ा खुशनसीब हूँ
पर अपने मुक्कदर में कभी झाँक नहीं पाया
रोज़ ज़हरीली हवा में सांस लेता हूँ
और दो धड़कन ज़िन्दगी की मांग नहीं पाया
शहर में तो लोग एक दूसरे से बचते फिरते हैं
मगर गाँव का प्यार मैं बाँट नहीं पाया
मौका मिलेगा तो अपनी मिटटी में ही मरूंगा
क्योंकि ज़िन्दगी भर ग़ुलामी से भाग नहीं पाया