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मकर संक्रांति का पर्व मेरे गाँव की छाँव में

जीवन की भी क्या विडंबना है कि काम और रोजगार के लिए आदमी को अपनी मातृभूमि या यूं कहें अपने गाँव को छोड़ना पड़ता...

ठौर

वक्त तू मुझे कहता है चलने को और खुद है कि रोज़ दौड़ लगाता है अभी पड़े हैं हम घर के किसी कोने में बिस्तर का रोग...

ये इश्क़ भी बड़ा अजीब है

ये इश्क़ भी बड़ा अजीब है जो दिल से दूर है उसके करीब है वो मेरे सामने अमीरी का शौक दिखाते हैं मगर मेरी शख़्सियत तो बड़ी...

जेएनयू का जहरीला जातिवाद: ब्राह्मणों और सवर्णों का अपमान

आज का भारत जहाँ विश्व को रास्ता दिखा रहा है और नए - नए कीर्तिमान गढ़ रहा है, वहीँ देश में विद्रोही ताकतों को...

किराया

हम लड़खड़ाते ज़मीर को सहारा देते हैं अपने सड़े हुए जिस्म को साया देते हैं रूह तो फिर भी पाक साफ रहती है शरीर को नकली सांस...

विनम्रता

“विनम्रता कभी दुर्बलता नही हो सकती बल्कि वह तो व्यक्ति की सरलता का परिचायक है”। ब्रजेश जी की टिपण्णी: परंतु आज के दौर में विनम्रता कमजोरी...

मुकम्मल भी हुआ तो क्या हुआ

मुकम्मल भी हुआ तो क्या हुआ ये इश्क़ है अपनी नादानी कहां छोड़ता है कभी तो खयालों को बसाता है और कभी सारे सपनो को तोड़ता है पन्ने...

गाँव: जहाँ जीवन सिर्फ बसता ही नहीं खिलखिलाता भी है

मेरी उम्र अमूमन 5 साल तो बढ़ ही गयी होगी क्योंकि छठ पूजा के अवसर पर गाँव के प्राकृतिक एवं प्रदुषणमुक्त वातावरण में लगभग...

मिलता नहीं है यारों मंज़िल का निशां

मिलता नहीं है यारों मंज़िल का निशां कहाँ पर आसमान और ज़मीन होते हैं फुर्सत नहीं है ज़िन्दगी में, लेकिन झमेला है वक़्त के तेवर भी बड़े...

मुझे सब कुछ पुराना याद है

अपनी यादों का क्या करें साहब मुझे सब कुछ पुराना याद है दीवारों से उड़ती हुई धूल भी देखी ज़मीन से उखड़ते हुए मकान भी देखे यूं हालातों...