मकर संक्रांति का पर्व मेरे गाँव की छाँव में

जीवन की भी क्या विडंबना है कि काम और रोजगार के लिए आदमी को अपनी मातृभूमि या यूं कहें अपने गाँव को छोड़ना पड़ता...

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वक्त तू मुझे कहता है चलने को और खुद है कि रोज़ दौड़ लगाता है अभी पड़े हैं हम घर के किसी कोने में बिस्तर का रोग...

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मकर संक्रांति का पर्व मेरे गाँव की छाँव में

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