वक़्त की सुरंग से जाने कितने लम्हे निकले
कुछ आगे चले गए कुछ रह गए पीछे
सुकून भी बेहिसाब सबको की गिरफ्त में है
अश्कों ने चेहरों पर समन्दर है खींचे
एक कोहरे से सर्द मौसम की आस लगी थी
पर उसने भी धुएं से लिबास हैं खरीदे
दिन मायूस हो रहा है रात की बेरुखी हवाओं से
क्योंकि शबनमी आग से जल गए हैं बगीचे
ये नज़्म है बेसुरी पर फिर भी साज़ छेड़ता हूं
क्या पता टूटे सुर से कोई नायाब राग निकले
आबो- हवा भी अब गमगीन हो चली है
पत्तियों ने बदले हैं जो बहने के तरीके
बेमन से शिरकत की दोस्तों कि महफ़िल में
खाली आसमां है ऊपर, बंजर धरती है नीचे
हालात से लडने की मेरी हमेशा कवायद रही है
इरादों ने आजमाएं है जो संभलने के सलीके
दो पल के लिए हाथ पर कोई उम्मीदें बांधता है
मगर मुश्किलों की भीड़ में सब रह गए पीछे
कशमकश है कि ज़िन्दगी से खफा नहीं हो सकता
बहुत सारे पल ज़िन्दगी में बेवजह हैं बीते
Source: http://antaraal.blogspot.com
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