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कशमकश

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kashamkash
कशमकश

वक़्त की सुरंग से जाने कितने लम्हे निकले
कुछ आगे चले गए कुछ रह गए पीछे

सुकून भी बेहिसाब सबको की गिरफ्त में है
अश्कों ने चेहरों पर समन्दर है खींचे

एक कोहरे से सर्द मौसम की आस लगी थी
पर उसने भी धुएं से लिबास हैं खरीदे

दिन मायूस हो रहा है रात की बेरुखी हवाओं से
क्योंकि शबनमी आग से जल गए हैं बगीचे

ये नज़्म है बेसुरी पर फिर भी साज़ छेड़ता हूं
क्या पता टूटे सुर से कोई नायाब राग निकले

आबो- हवा भी अब गमगीन हो चली है
पत्तियों ने बदले हैं जो बहने के तरीके

बेमन से शिरकत की दोस्तों कि महफ़िल में
खाली आसमां है ऊपर, बंजर धरती है नीचे

हालात से लडने की मेरी हमेशा कवायद रही है
इरादों ने आजमाएं है जो संभलने के सलीके

दो पल के लिए हाथ पर कोई उम्मीदें बांधता है
मगर मुश्किलों की भीड़ में सब रह गए पीछे

कशमकश है कि ज़िन्दगी से खफा नहीं हो सकता
बहुत सारे पल ज़िन्दगी में बेवजह हैं बीते

Source: http://antaraal.blogspot.com

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