कद्र कोई करता नहीं इन गजलों की यारों
सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं
मैं अगर उनसे प्रेम से बात भी करूँ तो
फिर भी वो लोग मुझे छलिया समझते हैं
मैंने अपनी पलकों में कितने समंदर समेटे हैं
पर वो हैं कि अश्कों को मेरे दरिया समझते हैं
मैंने उनसे ईमानदारी का हिसाब क्या माँगा
वो लोग तो मुझे अब ठेठ बनिया समझते हैं
अब पहले सा नाज़ुक नहीं रहा मेरा शरीर
जो लोग इसको इसको नन्ही कलियाँ समझते हैं
मेरे चर्चे चौपालों, चौराहों और देश विदेश में है
और दुश्मन है कि चारदीवारी को दुनिया समझते हैं
उस ठिकाने पर मेरे कदम अब कभी नहीं जाते
जिन्हे लोग गलतफहमी में मेरी गलियां समझते हैं
तुम्हे ज़रूर शौक होगा लज़ीज दावत उड़ाने का
हम तो नमक और रोटी को भी बढ़िया समझते हैं