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किसे शौक था गाँव से बिछड़ने का

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Sirauna
किसे शौक था गाँव से बिछड़ने का

किसे शौक था गाँव से बिछड़ने का
बस रोटी की लाचारी थी जो शहर आ गए

अपनी मिटटी के सौंधी सुगंध बड़ी प्यारी थी
अब तो आस पास धुंए के ज़हर आ गए

कच्ची पगडंडियों पे चलने का सुकून था
यहाँ सड़कों पर कदम लड़खड़ा गए

वो गलियां, चौपाल और मोहल्ले की बतकही
तुम्हे क्या बताएं हम कहाँ आ गए

वो पेड़ों की छाँव और कड़कती धूप
उन नज़ारों को छोड़कर यहाँ आ गए

ज़हन से उतरता नहीं मेरे घर का आंगन
इस शहर के मकान में सब भुला गए

मेरा दिल तो मेरे गाँव में बसता है
ख़ामख़ा बस पत्थर तोड़ने यहाँ आ गए