जीवन की भी क्या विडंबना है कि काम और रोजगार के लिए आदमी को अपनी मातृभूमि या यूं कहें अपने गाँव को छोड़ना पड़ता है … शहर की गलियों, मकानों और दफ्तरों में अपने पैरों को रगड़ना पड़ता है कि कहीं यहां पर भी बसेरा हो जाए। शिक्षा एवं रोजगार के कारण गाँव के आँगन सुने हो गए, दालानों-खलिहानो में सन्नाटा छा गया, अब गांवों में देर शाम ठहाकों की गूंज नहीं सुनाई देती। पंछी और नदियों की सरसराहट भी अब जैसे पूर्णिमा और अमावस की तरह कभी-कभी सुनाई देती हैं। गाँव का माहौल चहलकदमी और शांति दोनो का था लेकिन अब तो एक ऐसी चुप्पी छाई है कि जैसे लंबी बातचीत के बाद किसी ने कोई एक शब्द तक नहीं कहां हो।
जब भी कोई पर्व-त्यौहार आता है तो गाँव की याद बरबस आ जाती है… खासतौर पर मकर संक्रांति, होली, और दुर्गापूजा के दौरान तो गाँव की बेहद याद आती है … इन त्योहारों को गाँव में मनाने का जो मजा रहा, वो शहर में कदापि नहीं मिला। हलाकि छठी मईया के कृपा से प्रत्येक वर्ष छठ पर्व में गाँव जाने का अवसर मिलता है और 7-10 दिनों तक अपने परिवार – समाज के लोगो के साथ समय बिताने का मौका मिल जाता है। शहर में तो कभी-कभार पार्टी, डांस, और गाना बजाना करके हम खुश हो जाते हैं। मगर वो खुशी सिर्फ चंद मिनटों या घंटों की रहती है उसके बाद फिर वही डेली रूटीन का काम। ऐसा नहीं है कि शहर में लोग इन त्योहारों को गर्मजोशी से नहीं मनाते, मगर जो आत्मीयता, प्रेम और एक दूसरे के प्रति सद्भावना गाँव में दिखती थी वो शहरों में बस दिखावे की रह गई है …. गाँव की जैसी पवित्रता, सौम्यता, और शुद्धता दिखाई नहीं देती।
बचपन में मकर संक्रांति के त्यौहार में तो गाँव में अहले सुबह से ही हलचल शुरू हो जाती थी … सुबह सवेरे स्नान करके दही-चुड़ा खाने को मिलता था … जिस किसी के घर जाओ वहाँ यही खाने को मिलता था … कुछ यहाँ खाया, कुछ वहाँ … मतलब पुरे दिन बस दही-चुड़ा, मुरिह का लाइ, चुरा का लाइ, तिल का लाइ, और टिलकुट।
आज भी मकर संक्रांति है आज भी हमने अपने घर में पूरा व्यवस्था किये लेकिन गाँव वाला संक्रांति की कमी है, परिवार के सभी लोगो के साथ आँगन में बैठ के दही-चुड़ा खाना …दोस्त-यार के साथ मिल-बांट के लाइ खाना ये कमी खलता है। आज संयुक्त परिवार का सुख नौकरी – व्यवसाय निगल गया है। अधिकतर लोग रोजी-रोजगार के कारण परिवार से दूर हो गए है। अब संयुक्त परिवार के बदले एकल परिवार में ही त्योहारों को मनाया जा रहा है।
गाँव का समाज और सामाजिकता का महत्व हरेक पर्व-त्योहारों में दिखाई देता है, हालाँकि अब यह परंपरा थोड़ी धूमिल होती जा रही है क्योंकि समाज सिकुड़ता जा रहा है … समाज का तात्पर्य गाँव का नाम नहीं बल्कि वो दायरा है, जो भावनाओं के असीम विस्तृत दायरे में दिल की गहराईयों में स्थापित होता है … वो जो सुख-दुःख में साथ खड़ा दिखता है … समाज का नाम भौतिक तत्व नहीं या भगौलिक सीमा नहीं, यह तो एक दूसरे का साथ, एक दुसरे के लिए जैसे निहित भाव से सुपल्लवित होता है।
कुछ वर्षों के पश्चात् सेवा निवृत होने पर अपने गाँव के शांत वातावरण में, बिना अफरा-तफरी के, सरलता-सहजता के साथ जीवन व्यतीत करूंगा और सारे पर्व त्यौहार का आन्दमय तरीके से परिवार – समाज के साथ मिलकर मनाऊंगा।