मुकम्मल भी हुआ तो क्या हुआ
ये इश्क़ है अपनी नादानी कहां छोड़ता है
कभी तो खयालों को बसाता है
और कभी सारे सपनो को तोड़ता है
पन्ने पलटने में देर नहीं लगती
और हवाओं का रूख भी मोड़ता है
अकेले बैठे ये सोचता हूं दिन भर
कि क्यों ये दिल मुझे हर रोज टटोलता है
खामोश तो मेरी जुबान रहती है
अंदर तो दिल का जलवा बोलता है
बिखरे पत्थरों को कोई नहीं उठाता
और टूटे दिलों को भी कौन जोड़ता है