Home साहित्य ठौर

ठौर

387
0
Place
ठौर

वक्त तू मुझे कहता है चलने को
और खुद है कि रोज़ दौड़ लगाता है

अभी पड़े हैं हम घर के किसी कोने में
बिस्तर का रोग कोई और लगाता है

बनेगी बात तो बता देंगे तुमको
मन अभी से क्यों शोर मचाता है

सुस्त तबीयत बहुत ढीला काम करती है
जाने क्यों मेरा बदन फिर जोर लगाता है

कौन है यहां पर कलम का दीवाना
ये तो बाजारों का मोल बताता है

बहती हुई धारें नदी का हिस्सा था
बीता हुआ वक्त और दौर बताता है

बेघर हुआ है हर कोई अपने आशियां से
अब सड़क को हर शख्स अपनी ठौर बनाता है