अपनी यादों का क्या करें साहब
मुझे सब कुछ पुराना याद है
दीवारों से उड़ती हुई धूल भी देखी
ज़मीन से उखड़ते हुए मकान भी देखे
यूं हालातों से बेखबर हो जाना याद है
कभी एक आवाज़ पर इकट्ठा हो गए
तो कहीं एक दूसरे के बदन तोड़ दिए
कुछ इस तरह का याराना याद है
कच्ची पगडंडियों पर जब बैलगाड़ी थी
दो वक्त की रोटी मिले यही दिहाड़ी थी
मजदूरी के 50 रुपए और चार आना याद है
तुम हंसते हुए दर्द को सहलाते थे
हम गमगीन होकर भी मुस्कुराते थे
यूं इसी तरह से जज्बात छुपाना याद है
खेल खेल में मिट्टी का घर बनाते थे
ताश के महल भी मिनटों में सजाते थे
हमे वो ताश के पत्ते गिराना याद है
एक आवाज़ में तुम कभी नहीं आई
जब भी खिड़की पर दिखी तो मुस्काई
घंटों तेरी राह में आंखे बिछाना याद है
कौन सांस को पकड़ कर रखेगा
कभी ना कभी तो रूह से मिलेगा
ये बातें सबको बताना याद है
लगाव खुद से नहीं बस यकीन था
अंदाज नया था और ख्वाब जहीन था
अपने आप से वादा निभाना याद है
मैं खुश हूं कि ये सफर अकेला है
मैंने जख्म के साथ हंसी को झेला है
साथ रहकर भी अकेले हो जाना याद है