टूटी हुई शाखें दरख़्त के मायने तलाशती हैं
बिखरी हुई पत्तियां मिटटी के घरोंदे सजाती है
कभी जो अनजाने में तुमसे गलती हो गई
पल भर मे माफी माँगना उसको सुधारती है
नहीं रहता है इतना ध्यान किस से क्या कहें
सलीके से ज़िदगी हमें सिखाती है
बिखरी हुई दीवारों के क्या मायने हैं
टूटी हुई छत और जमीन आसरा है
शामें ढलती है धूलों के बवंडर में
और चुपचाप सी एक राह चलती है
कौन किस लम्हात में लड़खड़ा जाए
सुबह की अलसाई धूप ये बताती है
मीठी बर्फ की सिल्ली चुभती है बदन में
पर मुलायम साँझ का टुकड़ा मरहम देता है
बेज़ार कौन ये तो खबर नहीं मगर
ख्यालों का उबासी लेना समझ के दायरे में नहीं
हज़ारों दलीलों से इरादे बदले
और छुपाने की फितरत भी ख़ारिज हुई
क्या गुज़ारिश लेकर आई है फ़िज़ा
कि सम्भलो की कहीं सन्नाटा न छाए
अभी तो पटरी से पत्थर हटे हैं
पर गाड़ी लड़खड़ाने का खतरा बाकी है
बेसमझ गलियों में आवाज़ों का हुजूम
शोर बनकर चिंगारी को आग बनाते हैं
तलहटी में चिपकी हुई पानी की बूँदें
गुस्से में छिड़ककर जज़्बात जमा देती हैं