सुन रहे हो तुम?
उन सूखी पत्तियों की सरसराहट
जो बसंती बयार का इंतज़ार करते हुए
ज़मीन पर बिखरी पड़ी हैं।
कैसे सुनोगे?
आखिर इंतज़ार का दर्द तुम्हे कैसे पता होगा!
तुम तो शहर की तेज़ रफ़्तार के साथ अपनी गति को बढ़ाते हो।
सुन रहे हो तुम?
बंजर पड़े खेतों में गिरे हुए पेड़ों की चीख को
जो तुम्हारे कहानी कह रही है।
कैसे सुनोगे?
जब चकाचौंध से भरी ज़िन्दगी की गाडी
का हॉर्न सुनने के आदि हो गए हो।
सुन रहे हो तुम?
गाँव में राह देखती उस बूढी काकी की पुकार
जिसका अपना कोई नहीं, बस तुम हो वो भी बस नाम के।
कैसे सुनोगे?
जब तुम्हे गाँव की मिटटी में सिर्फ धुल नज़र आती है, मगर उसकी
सौंधी सुगंध और शुद्धता नहीं दिखती।
सुन रहे हो तुम?
उन छोटी बच्चियों का रोना,
जिन्हे जन्म लेने से पहले ही गर्भ में मार दिया जाता है।
कैसे सुनोगे?
आखिर तुम्हे भी अपने खोखले वंश को आगे बढाने के लिए
एक जीता जागता मर्द के मांस का लोथड़ा चाहिए।
सुन रहे हो तुम?
उस पिता की बात
जो तुम्हे इसलिए डांटते थे
कि तुम हर कदम पर सतर्क रहो
और अपनी ज़िन्दगी में कुछ अच्छा करो।
कैसे सुनोगे?
आखिर तुम भावशून्य जो हो गए हो!
तुम्हारे अंदर का मानव अब मरणासन्न पड़ा है।
सुन रहे हो तुम?
उस माँ की आवाज़ को जो दिन रात तुम्हारे लिए
प्रार्थनाओं के अम्बार लगा देती है
और तुम से पहले तुम्हारे जीवन की मुसीबतों से लड़ती है।
कैसे सुनोगे?
जब उसके दुलार को तुम घुटन का नाम देते हो
जबकि तुम्हारी ज़िन्दगी एक गुलामी से कम नहीं।
सुन रहे हो तुम?
सड़क में ठेला लगाने वाले उस छोटे मज़दूर की ध्वनि को
जो बड़ी मशक्कत से अपने लिए
तीन वक़्त की रोटी का इंतज़ाम करता है
मगर उसके चेहरे पर संतोष का भाव नहीं हटता।
कैसे सुनोगे?
जब तुम्हे रोटी ही पसंद नहीं
तुम्हे तो होटलों का सड़ा-गला
पिज़्ज़ा, बर्गर जो पसंद है।
सुन रहे हो तुम?
उस स्वाभिमानी कवि/लेखक के
गीत, रचनाएँ और कवितायेँ, जो अपनी लेखनी से
समाज को दर्पण दिखाता है,
दशा और दिशा बदलने का माद्दा रखता है
पर असभ्य बाज़ार के छद्म मानकों के
अनुरूप अपनी आत्मा को नहीं बेचता।
कैसे सुनोगे?
जब तुम्हे वो शोर करने वाला संगीत,
अशालीन नृत्य और रातों की दूषित सभाओं में
आनंद आता है।
सुन रहे हो तुम?
वैसे तुम मत सुनना!
सुन भी लोगो तो तुम्हारा
हृदय करुणा, दया और सहृदयता से भरेगा, इसमें मुझे संदेह है।