उसे सामने देखकर लफ़्ज़ रुक गए
ख्वाबों में तो कितना बतियाते थे
कभी गौर नहीं किया अपने तेवरों पर
बात बात पर हम भी गरियाते थे
वो कौन सी मंजिल है जहां रुकेंगे
रोज राह की चोटों को सहलाते थे
छुपाने की जद्दोजहद बड़ी मुश्किल है यार
झूठी हंसी जब चेहरे को पहनाते थे
ना दर्द में हमदर्द रहा ना राह में हमसफर
धड़कनों को यूं ही तस्सली दिलवाते थे
शाम-ए-महफिल में अब गजलें नहीं होती
जिन्हे हम खामोशी से गुनगुनाते थे
टूटना ही था उस घरौंदे ने एक दिन
जिसको हम कच्ची ईंटो से बनवाते थे
उसके गुनाहों की दबिश भला क्यों होगी
झूठे चश्मदीदों से जब शिनाख्त करवाते थे