मेरी उम्र अमूमन 5 साल तो बढ़ ही गयी होगी क्योंकि छठ पूजा के अवसर पर गाँव के प्राकृतिक एवं प्रदुषणमुक्त वातावरण में लगभग 7 दिनों तक निवास करने का मौका मिला …. प्रातः काल नींद खुलती थी चिड़ियों के मधुर चहचाहट से ….सुबह में सैर के लिए कछुआ नदी के किनारे सिरौना से हरनरैना गाँव तक टहलते चला जाता था ….. सुबह की शुद्ध हवा में कई बार गहरी सांस लिया ताकि फेफड़े की अशुद्धि खत्म हो जाए और शुद्ध हवा का प्रवेश हो सके।
भला आप ही बताओ दोस्तों किसका मन करता है ऐसे शुद्ध वातावरण को छोड़कर जाने का …. मगर क्या करें ये जिंदगी की जद्दोजहद है ना बहुत कुछ करवा कर मानती है।
गाँव के हरे-भरे खेत, सौंधी मिट्टी की खुशबू , कछुआ नदी के किनारे बैठे हुए सुनहरे पल को जब भी याद करता हूं तो दिल और आंखो में आंसू आ जाते हैं।


शहर में बहुत कुछ मिला, नौकरी मिली, पैसा कमाया, ईश्वर की कृपा से अच्छी जगह भी रह रहे हैं, मगर गाँव का भोलापन और सहृदयता कहां से लाऊं।
बहुत से दोस्त बने शहर में, कुछ अच्छे हैं … कुछ बहुत अच्छे हैं …. बाकी कुछ हैं जो बरसाती केकड़े हैं जो काम पड़ने पर फोन की घंटी ऐसे बजाते हैं जैसे हमने इनके काम करने का ठेका ले रखा हो …. पर अपने गाँव के वो बचपन के दोस्त कहां से लाऊं।
दोस्त लोग भी कई शहरों को छानकर नौकरी से छुट्टी लेकर गाँव आते हैं और अपना किस्सा सुनाते हैं। बचपन में हमलोग शाम के समय हाई स्कूल के मैदान में जब फुटबॉल, और बैट बॉल (हमारे यहां क्रिकेट को यही कहते हैं) खेलते थे तो शाम से कब रात हो जाती थी पता नहीं चलता था …. किसी के विवाह, जनेऊ, जन्मदिन या कोई भी शुभ कार्य में रात भर जग के CD, TV पर दोस्तों के साथ फिल्में देखना…. फिर सुबह में घर आने पर जो सुताई होती थी उसके और मजे थे (अरे भाई मजे नहीं थे बड़ा दर्द होता था अगले दिन) मगर सह लेते थे, क्योंकि “गाँव का हर लम्हा, हर किस्सा, और हर घटना अपने आप में एक सौम्यता, सहजता और जीवन के प्रति सरल दृष्टिकोण रखती है”। गाँव के लोगों के सपने भी इतने बड़े नहीं है, बस शहर जाकर अच्छी नौकरी मिल जाए, अगर थोड़ा बहुत कमा लिया तो एक घर बना लिया जाए और बाकी क्या चाहिए जीवन में। यहां शहर में एक महीने का वेतन निकलने में ऐड़ियों का चूरमा निकल जाता है …. मगर फिर भी प्रयास निरंतर जारी है।


गाँव में 7 – 10 दिन का समय कैसे गुजर जाता है पता ही नहीं चलता… और देखते देखते शहर वापस आने की तारीख आ जाती है। कितना अच्छा होता यदि अपनी मातृभूमि और जन्मभूमि को छोड़कर जाना नहीं पड़ता…. गाँव में ही रहके जीवकोपार्जन का साधन मिलता।
कभी-कभी तो मन करता है कि क्या बकवास जिंदगी है शहर की …. साला इसने जितना दिया है उसे ज्यादा तो ले लिया है। पैसे दिए तो सुकून ले लिया, एयर कंडीशन दिया तो सांसे ही तोड़ दी, ऐशो आराम दिया तो बीमारी के भंडार भी दे दिए।
गाँव में सुबह-सुबह मां के हाथों बने भात, दाल और आलू की भुजिया के क्या कहने … लकड़ी की आंच पर पके हुए खाना, लोहे की कढ़ाई में बने हुए आलू, बैगन, और टमाटर की सब्जी के लिए मचल जाना, गय्या मां का ताजा दूध पीना, उनके गोबर से खाद तैयार होते और गोइथा-चिपरी (उपले) भी बनते देखना। शहर के पिज्जा, बर्गर, चिल्ली – चाउमीन ने तो सबके गुर्दों में जैसे विष घोल दिया है। लोग कहते हैं शराब, गांजा और ड्रग्स का नशा बहुत बेकार होता है। मगर ये फास्ट फूड खाने का नशा भी पीढ़ियों को बर्बाद कर रहा है। शहर का धुआं किसी धीमे जहर से कम नहीं, लोग धूम्रपान के अलावा प्रदूषण से भी मर रहे हैं। मगर क्या करें, जिंदगी है और सब चलताऊ है।
सरकार अगर सही मायने विकास करना चाहती है तो गाँव में या उस से सटे क्षेत्रों में रोजगार के अवसर पैदा करती। गाँव में अब सुविधाओं की कोई कमी नहीं …. बिजली एवं सड़क की उपलब्धता के कारण वो तमाम सुविधाएं उपलब्ध हैं जो किसी शहर में उपलब्ध होती हैं …. बस ग्रामीण क्षेत्र में खेती-बाड़ी के अलावा स्रोवजगार के अवसर प्रदान करने के लिए कुटीर उधोग, एवं लघु उधोग को बढ़ावा मिलता तो गाँव से शहरों में पलायन रुकता हुआ दिखता।
खैर! हम तो उम्मीद ही कर सकते हैं, बाकी तो सब भविष्य के गर्भ में है। मगर एक अच्छी बात है कि छठी मईया के कृपा से प्रत्येक वर्ष छठ पर्व में गाँव जाने का अवसर मिल ही जाता है।


चलो अभी तो चलता हूं उसी शहर की रोजमर्रा के कठिनाइयों से लड़ने, फुरसत मिलेगी तो फिर से कोई किस्सा – कहानी, यात्रा वृतांत सुनाऊंगा।