वो रास्ते, वो मंजिले, वो मुक़द्दर कहाँ,
पहले जैसे अब कोई काफिले कहाँ,
वो नूर, वो तसव्वुर, वो ग़ज़लें कहाँ,
वो गाहे – बगाहे इंतेज़ार करती यारियाँ कहाँ,
वो सर्दी की रात में साथ बैठ बातें करने का अब मौसम कहाँ,
कहाँ अब बचपन खिलखिलाते दिखते हैं,
रिश्तेदारियों की अब वो अठखेलियाँ कहाँ,
सब शांत सा है माहौल अब हर ओर,
सबकी सिमटी सी जिंदगी है अब,
सब मशगूल हैं अपनी बातों में,
और अपनेपन से अब कोसो दूर,
चलो नयी आज इक शुरुआत करते हैं,
पुराने दिनों को फिर से जीते हैं
और फिर इसे याद करते हैं,
फिर वही दोस्ती और वक़्त का एहसास करते हैं,
चलो आज से ही मिल कर नयी शुरुआत करते हैं
~ निशा बलूनी