पत्रकारिता में स्वयंभू शिखर पुरुष कहलाने हेतु रविश कुमार की मानसिकता एक ऐसे कुंठित व्यक्ति की तरह हो चुकी है जो न चाहते हुए भी अपने स्वरचित दृष्टिकोण को लागू करने के लिए दर्शकों की नब्ज़ पकड़ने का निराधार दावा करते हैं।
हालाँकि अपनी इस पराजित कोशिश में वो ये भूल जाते हैं कि इस देश के लोकतंत्र का मज़ाक जब अभिव्यक्ति की आज़ादी के झंडाबरदार अपनी सुविधा के हिसाब से बना सकते हैं तो फिर हर सम्मानित या वंचित नागरिक को इसका हक़ क्यों नहीं है।
रवीश कुमार इस मुग़ालते में हैं कि उनका कहा गया विचार और उनकी थोपी हुई घटिया पत्रकरिता का सन्दर्भ आम नागरिकों की भावनाओ से मेल खा रहा हैं परन्तु मुसीबत ये हैं कि जब उनके अनुसार ख़बरों का सम्प्रेषण नहीं होता तो उनकी खीज बस सरकार को गरियाने में निकलती है।
यहाँ हम यह नहीं कहेंगे कि सरकार से सवाल पूछना गलत है मगर सवालों की आड़ में आम जनमानस को उलझाकर अपने पूर्व नियोजित प्रोपेगंडा के तहत अस्तित्व खोते विपक्ष को राजनितिक ज़मीन तलशने का एक व्यर्थ प्रयास किया जाता है। अरे हमने कब कहा कि तुम मोदी का विरोध मत करो, विरोध करो, पर मुद्दों पर करो, व्यक्तिगत हमले से क्या होगा, और मोदी विरोध भी करना है तो साथ साथ, राहुल विरोध , ममता विरोध, मायावती विरोध, केजरीवाल विरोध क्यों नहीं करते ( यहाँ व्यक्ति विशेष के विरोध से अधिक उनकी नीतियों, मुद्दों और उनके कुकर्मो के विरोध की बात कही है)
इनकी पत्रकारिता में इतनी ज़्यादा घृणा और नकारात्मकता है की यदि सरकार के द्वारा कोई योजना निकाली जाती है तो ये उसमे भी गेंहू की बोरी की तरह घुन ढूंढने में व्यस्त रहते हैं, ये परीक्षा से पहले ही परिणाम घोषित करने लगते भले ही उनके ये सारे अनुमान नितांत फ़र्ज़ी ही क्यों न हो।
इनकी मजबूरी ये हैं कि विपक्ष का पक्ष लेकर भी ये निष्पक्ष रहने का ढोंग करते हैं मगर सभी को ज्ञात है की विपक्ष यानि वामपंथी और कांग्रेस पोषित राजनीती को उनकी मूक स्वीकृति प्राप्त है, और लोहिया के सिद्धांतों खोखला करने वाला आ(समाजवाद), आंबेडकर के संविधान को विकृत करके आरक्षण और दलित की राजनीती का उपधान लेकर हिन्दुओं को कभी मनुवादी, कभी ब्राह्मणवादी, कभी संघी, कभी भगवा आतंकवाद के नाम पर बरगलाया जाता है जो वास्तव में में असत्य अतिरिक्त कुछ नहीं है कोई भी लम्पट नेता अगर विपक्ष से शर्मनाक बयान दे तो ये उनको तवज्जो नहीं देते मगर मर्यादा और अनुशासन का पाठ केवल भाजपा के खाते में ही आता है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति इनकी घृणा और नफरत इस हद तक है कि इन्हे ये भी ज्ञात है ये के नाले के पानी में रहकर सड़ांध का अनुभव कर रहें हैं मगर फिर भी इन्हे लगता है जैसे ये कोई रजनीगंधा फूल से निर्मित कोई इत्र हो
ऐसी बात नहीं है कि रविश के पत्रकारिता का पैटर्न अभी से ऐसा हुआ है दरअसल 2014 के बाद से जो मिर्च इनके शरीर पर लगी है और जिससे इनके दिमाग में इतना ज़हर बन चुका है कि ये वही विष अपनी भौंडी पत्रकारिता के ज़रिये दर्शकों तक पहुंचना चाहते हैं। मोदी विरोध करने में तल्लीन रहने के कारण इनकी सोच के सभी स्तम्भ ढह गए हैं जहाँ नैतिकता का मरणासन्न पड़ी है इनकी पत्रकारिता के कारण।
जब ये पक्षपाती पत्रकरिता की आड़ में वामपन्थ और कांग्रेस के सभी कुकर्मो पर पर्दा डालते हैं और वर्तमान भाजपा सरकार के हर एक कदम को संदेह की दृष्टि से देखते हैं, यहां तक की पुलवामा हमले के बाद यही पत्रकार सरकार की चूक पर सवाल करते हैं, जो वाजिब है, मगर जब सरकार इस हमले का सटीक रणनीतिक और ठोस जवाब देती है तो इनके सीने में सांप लोट जाते हैं, पता नहीं इनका पेट किस चीज से भरेगा, सोशल मीडिया में इतनी गाली खाने के बाद भी इन्हे मल-मूत्र चखने की इतनी आदत हो चुकी है की ये अपने ज़मीर को हर उस चीज के साथ गिरवी रखने को तैयार हैं जहाँ मोदी विरोध की पराकाष्ठा देश विरोध में तब्दील हो जाती है और जब इनसे सवाल किया जाता है, तो ये विक्टिम कार्ड खेलकर सरकार पर पत्रकारों की आवाज़ दबाने का फ़र्ज़ी आरोप भी लगाने में पीछे नहीं रहते, इस बेवकूफ, संकीर्ण, अवसादी और आत्ममुग्ध पत्रकार को ये भी ज्ञात नहीं होता कि अपने इसी दोगलेपन और पक्षपाती पत्रकारिता के कारण ये अपनी प्रासंगिकता खो रहा है , वो अलग बात है कि इसे अपने राजनितिक आकाओं और इसके समर्थकों से नीचता के नए नए प्रतिमानों को गढ़ने में मज़ा आता है, हालाँकि हम सब जानते हैं कि इस कुंठित और आत्ममुग्ध पत्रकार की ज़मीन बस एक छोटे से दायरे में सिमटी हुई और शायद वो ज़मीन भी खिसकने के कगार पर है।
2014 की करारी हार से बौखलाई कांग्रेस और विपक्ष की राजनीती जहाँ हाशिये पर चली गयी है तो उनके ज़हरीले एजेंडे को चलाने के लिए कोई तो होना चाहिए और यहाँ रविश के साथ पूरे एनडीटीवी चैनल ने बीड़ा अपने कन्धों पर उठा रखा है।
ये पराजित लोग अपनी नकारात्मकता और विफलता के चलते अपनी जीर्ण सोच का प्रसार प्रचार करने के लिए एक मंच की तलाश में लगे हैं, हालाँकि एनडीटीवी, द वायर, क्विंट(कुंठित) और तथकथित बुद्धिजीवी जिनकी बुद्धि निर्जीव है और साथ में सेकुलरिज्म के खतरनाक वायरस से पीड़ित कला जगत और मनोरंजन उद्योग जो घोर भौतिकवादी तथा आत्म-अनुशंसा का परिचायक इनका साथ समय-समय पर देते हैं, रवीश के अलावा और भी कई नाम है जिनकी पत्रकारिता से हाइपर सेकुलरिज्म की दुर्गन्ध आती है, और जिन्हें वैदिक सनातन धर्म के भगवा ध्वज से इतनी जलन है की इनका बस चले तो ये तिरंगे से भी भगवा रंग को गायब कर दें और हरे रंग से इतना लगाव है, कि चाँद सितारे रुपी झंडों को राहुल गाँधी की वायनाड लोक सभा क्षेत्र के नामांकन की विशेषता का परिचायक बताते हैं, खैर इन बेकार के फ़र्ज़ी और पक्षपाती पत्रकारों को क्या कहें जब 60 साल राजनीती के कुकर्मो और मक्कारी का विष इनकी नसों में इस तरह घोला गया है जैसे कि कोई शहद इनके रुधिर से बहकर अमृत के नए रूप का सृजन करेगा, हालाँकि हम सबको पता है इनकी ये घृणित, कुत्सित और कुकर्मी मानसिकता अब धीरे धीरे अपने विलुप्त होते हुए अस्तित्व की तलाश में लगी रहेगी, मगर हम इनके प्रोपोगैंडा और इनकी निर्लज्ज सोच के खिलाफ हम हमेशा से खड़े रहेंगे, फिर चाहे कोई हमें दक्षिणपंथी, भक्त, संघी या फिर एक्सट्रीम नेशनलिस्ट का तमगा ही क्यों न दे। स्वरा भास्कर जो वामपंथ के सड़े हुए बीज की नयी उपज है फ्री थिंक के नाम पर अश्लीलता का भौंडा प्रदर्शन करती है, अपने वामपंथ के बासी और खतरनाक विचारों का प्रेषण करती है, एक बेहद ही औसत और निम्न दर्जे की अभिनेत्री यहाँ अपने हाइपर सेकुलरिज्म की बीमारी के चलते बेशर्म और बदतम्मीज, जिग्नेश मेवानी और कन्हैया कुमार का प्रचार करती है, करे शौक से करे, मगर कोई उसकी विचारधारा का विरोध करे तो उसका सामना करने के लिए तैयार रहे नहीं तो फेमिनिज्म वाला कार्ड न खेले, बाकी संघी संघी बोलकर अपनी खीज निकलने से अच्छी अपने वामपंथ की उपलब्धि गिनवा दे वही बहुत है, क्यों ये शर्मनाक बुढ़िया अपने घटिया ओपिनियन को देश का ओपिनियन समझने की ग़लतफ़हमी में है। और भी कई नाम है , जैसे अनुराग कश्यप जो अपने अश्लील सिनेमा में रीयलिस्टिक सिनेमा के नाम पर गाली और बदज़ुबानी, हिंसा और यौन लीलाओं को चित्रित करता है, और उसकी कहानियों को थोड़े से दर्शक मिलते हैं तो स्वयं को कला जगत का सिरमौर समझता है , जिस व्यक्ति को खुद बात करने का सलीका नहीं वो देश के प्रधानमंत्री को गाली देता है और उसके बाद ये आशा करता है कि लोग इस पर फूल बरसायेंगे, वो अलग बात है कि अगर किसी आम नागरिक के सामने अगर ये बेशर्म और सभ्य व्यक्ति पड़ गया तो शायद इसके शरीर पर दो ही रंग दिखेंगे एक पूरा शरीर नीला पड़ेगा, या फिर लाल।
बुद्धिजीवियों जो वास्तव में निर्जीव बुद्धि के स्रोत हैं, रविश कुमार उनके सबसे पसंदीदा पत्रकार है क्युकी इनके चैनल की नीव में वामपंथ के ज़हरीले दंश बराबर लगते रहते हैं। देश के लोकतंत्र को धराशाही करने वाले राष्ट्र विरोधी हार्दिक पटेल जो सिर्फ राजनीती करने के लिए पटेलों के आंदोलन को उग्रता से भड़काता है, चंद्र शेखर उर्फ़ रावण ( चंद्रेशखर आज़ाद जैसे महान क्रांतिकारिओं के नाम को बदनाम करने वाले आरक्षण की घटिया राजनीती करने वाला भीम आर्मी का छुटभय्या नेता ), जेएनयु का तथाकथित गरीब वंचित कन्हैया कुमार जो देश के बर्बादी के नारे लगाकर टुकड़े टुकड़े गैंग का संस्थापक है , उसको ये मीडिया संस्थान अपना हीरो मानते हैं, मगर देश के प्रधानमंत्री इनको तानाशाह लगते हैं , अभिव्यक्ति आज़ादी का अधिकार तो याद रहा मगर देश के प्रति अपने अपने कर्तव्यों को तिलांजलि दे दी जाती है, इन जैसे चंद स्वार्थी और राष्ट्र विरोधी तत्वों से कभी भारत न तो डरा है न डरेगा , बल्कि ये खुद डरे हुए हैं, क्यूंकि इनका खुद का अस्तित्व अब विलुप्त होने की आखिरी सीमा पर आखिरी साँसे टटोल रहा है, ये मरने से पहले की इनकी फड़फड़ाहट है क्योंकि मरने के बाद इनका नरक में भी जूतों और कीचड से स्वागत होना तय है।