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बिखरे पन्ने… भाग -1

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बिखरे पन्ने
बिखरे पन्ने

एक स्याह को तरसते वो कुछ कह नहीं पाए
कुछ सुर्ख लाली लगने को थी पर लग नहीं पाई
बस रूह मे सफेदी का सन्नाटा भरा है
और शरीर से कई सवाल सने हैं
ये मेरी दास्तान के बिखरे पन्ने हैं

उसके आशियाने अब दबीज़ों की मोटी परत है
कैसे एक निगाह उस पर तरेरी जाए
सर्द लम्हों से रात का पहरा बढ़ गया
पर लिहाफ़ कहाँ से खरीदी जाए
कि सब तो उसके घर के शामियाने हैं
और मेरी कहानी के बिखरे पन्ने हैं

गिरती है अहमियत ज़िन्दगी की मगर
मौत को कारगर रहगुज़र नहीं
परवाज़ से पहले ही पंख कुतरे गए तो क्या
ये कोई आखिरी सफर नहीं
वक़्त की नज़्म को समेटे ये बिखरे पन्ने हैं

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